
उत्तराखंड सरकार द्वारा 5 जनवरी 2018 को लागू की गई स्थानांतरण नीति की धारा 7 (घ) 5 का उद्देश्य यह था कि सैन्य एवं अर्द्धसैनिक बलों में कार्यरत जवानों के जीवनसाथी को पारिवारिक जिम्मेदारियों के निर्वहन हेतु परिवार के पास नियुक्ति मिल सके। परंतु नीति की वर्तमान संरचना में केवल सुगम से दुर्गम स्थानांतरण में छूट का प्रावधान है, जबकि दुर्गम से सुगम में कोई सुविधा नहीं दी गई है, जिससे इन आश्रितों को वास्तविक लाभ नहीं मिल पा रहा है।
सबसे अधिक प्रभावित वे महिलाएं हैं जिन्हें प्रारंभिक नियुक्ति ही दुर्गम क्षेत्रों में मिली है। ऐसी कर्मियों को अपने छोटे बच्चों, वृद्ध सास-ससुर की देखभाल तथा सैनिक पति के साथ जीवन व्यतीत करने में भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। 15 से 20 वर्षों तक दुर्गम में सेवा के बाद ही उन्हें सुगम में स्थानांतरण का अवसर मिलता है। इस अवधि में न केवल पारिवारिक जीवन प्रभावित होता है बल्कि मातृत्व, बच्चों का पालन-पोषण और दांपत्य जीवन भी प्रभावित होता है।
एक ओर जब सैनिक देश की सीमाओं पर तैनात होते हैं, तो वे यह अपेक्षा करते हैं कि उनका परिवार सुरक्षित एवं साथ रहेगा। लेकिन उनकी पत्नी, जो स्वयं भी दुर्गम क्षेत्र में तैनात हैं, वह न तो अपने बच्चों को समय दे पा रही हैं, न पति को, और न ही वृद्ध सास-ससुर की सेवा कर पा रही हैं। यह स्थिति न केवल पारिवारिक ढांचे को कमजोर करती है बल्कि मानसिक तनाव और कार्यक्षमता पर भी असर डालती है।
वर्तमान भारत-पाक तनाव की स्थिति इस बात को फिर से स्पष्ट करती है कि सैनिक किस प्रकार हर संकट में देश के लिए खड़े रहते हैं। ऐसे में उनके परिवारों की अनदेखी करना समाज और सरकार – दोनों के लिए शर्मनाक है।
इसलिए यह मांग की जा रही है कि उत्तराखंड स्थानांतरण नीति 2018 की धारा 7 (घ) 5 में तत्काल संशोधन कर दुर्गम से सुगम स्थानांतरण में भी सैनिक एवं अर्द्धसैनिक बलों के आश्रितों को छूट प्रदान की जाए। यह न केवल नीतिगत न्याय होगा, बल्कि एक सैनिक परिवार के मनोबल को भी मजबूती देगा, और शासन की “कल्याणकारी सोच” को वास्तविक धरातल पर उतारेगा।