पौड़ी: पौड़ी ज़िले के मुख्यालय से सटी गगवाड़स्यूं घाटी इन दिनों धार्मिक उत्सवों की आभा से जगमगा उठी है। त्मलाग गांव में 12 वर्ष बाद शुरू हुआ पारंपरिक ‘मौरी मेला’ आधिकारिक रूप से आरंभ हो गया है। कुंभ और नंदादेवी राजजात की तरह यह अनोखा पर्व भी बारह वर्षों में एक बार आयोजित होता है, जिसमें गढ़वाल की समृद्ध परंपराएं और लोक आस्थाएं जीवंत हो उठती हैं।
छह माह तक चलेगा पांडव लीला का भव्य आयोजन
मौरी मेला दिसंबर से जुलाई तक, पूरे छह से सात महीनों तक लगातार चलेगा। इस दौरान त्मलाग गांव के मध्य स्थित भैरव मंदिर के चौक में प्रतिदिन ढोल सागर की थाप पर पांडव अवतरित किए जाएंगे। ग्रामीण मान्यता अनुसार, पांडव यहां देव स्वरूप में अवतरित होते हैं और पांडव नृत्य सहित कई धार्मिक अनुष्ठान पूरे क्षेत्र को आध्यात्मिक ऊर्जा से भर देते हैं।
मेले में……..
गणेश पूजन
देवप्रयाग तक पैदल यात्रा
गेंडी वध
दो पेड़ गांव लाने की परंपरा, तथा अन्य प्राचीन लोक-विधियां विधि-विधान से निभाई जाएंगी। ढोल–दमाऊं की गूंज के बीच माता कुंती, द्रौपदी और पांचों पांडव ‘पश्वा’ के रूप में ग्रामीणों पर अवतरित होते हैं, और पूरा गांव भक्ति-उत्साह में डूब जाता है।
किवदंतियों में बसे पांडवों के कदम
स्थानीय लोककथाओं के अनुसार, वनवास काल के दौरान पांडव त्मलागऔर कुंडी गांव में रुके थे। ग्रामीणों ने उनका स्वागत अपने पुत्रों की तरह किया था। इसी स्नेह से प्रभावित होकर माता कुंती ने तملाग को ससुराल और कुंडी को मायका कहा था। तब से हर 12 वर्ष में यह मेला पांडवों की स्मृति में आयोजित किया जाता है।
सात महीने तक लौटेगी पारंपरिक रौनक
मेला आयोजकों के अनुसार सात महीनों तक गांवों में पांडव लीला चलती रहेगी। दूर-दराज में बसे प्रवासी ग्रामीण बड़ी संख्या में अपने मूल गांव लौट रहे हैं, जिससे पूरे क्षेत्र में उत्सव का माहौल है। खास बात यह है कि गांव से ब्याही गई ‘ध्येणियों’ (बेटियों) को भी विशेष न्योता भेजा गया है, ताकि वे अगली पीढ़ी को इस विरासत से परिचित करा सकें।
पलायन के बीच जड़ों से जोड़ने वाला पर्व
ग्रामवासियों का मानना है कि लगातार होते पलायन के बीच यह मेला लोगों को अपनी धरती और परंपराओं से जोड़ने का महत्वपूर्ण माध्यम बन रहा है। 12 साल बाद आयोजित होने वाले इस पर्व में युवा अपने बच्चों के साथ गांव लौट रहे हैं और स्थानीय संस्कृति को करीब से जी रहे हैं।
रूपैणा–नारायण की कथा: मेले की आत्मा
लोककथा के अनुसार रूपैणा, पांडवों की धर्म बहन थीं। उनके पति राजा नारायण एक सुंदरी ‘कुसमा कुवेण’ के रूप पर मोहित होकर अपना परिवार और राज्य भूल जाते हैं। इसी दौरान दानवों द्वारा राज्य उजाड़ दिया जाता है और रूपैणा अपने पुत्रों से भी वंचित हो जाती हैं। यह पीड़ा जब वे माता कुंती को बताती हैं, तो पांडव उन्हें उनका राज्य वापस दिलाने का वचन निभाते हैं। इसी ‘दान से समृद्धि’ की भावना को ‘मौरी’ कहा जाता है, जो इस मेले की आत्मा है—वचन, आस्था और समृद्धि की परंपरा।
