जलवायु परिवर्तन का असर अब सीधे तौर पर उत्तराखंड के पशुपालन पर पड़ने लगा है। गढ़वाल विश्वविद्यालय के शोधार्थियों सोनाली राजपूत, शुभम थापा और आभा रावत के शोध में यह खुलासा हुआ है कि बढ़ते तापमान, अनियमित बारिश और बर्फबारी की कमी से पशुपालन संकट में है। यह शोध हाल ही में एक अंतरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
पर्वतीय जिलों में ज्यादातर पशुपालन छोटे किसान और जनजातीय समुदायों की आजीविका का आधार है। लेकिन अब बर्फ के समय से पहले पिघलने और बुग्यालों (ऊंचाई वाले चारागाहों) के सूखने से चराई का समय घट गया है। इससे चारे की कमी हो रही है और पशु कमजोर पड़ रहे हैं।
शोध में सामने आया कि बढ़ते तापमान से गाय-बकरियों में हीट स्ट्रेस बढ़ गया है। दूध उत्पादन कम हो रहा है और पशु बार-बार बीमार हो रहे हैं। परंपरागत जल स्रोत जैसे झरने और धाराएं भी अब स्थायी नहीं रह गए हैं। 92 प्रतिशत ग्रामीणों ने माना कि नदियां और झरने सूखने लगे हैं या अनियमित बह रहे हैं। इसका सीधा असर चारे की खेती और पशुओं की सेहत पर पड़ रहा है।
गढ़वाली बकरी और पहाड़ी गाय जैसी स्थानीय नस्लें, जो कठिन जलवायु में भी टिकाऊ मानी जाती थीं, अब कमजोर हो रही हैं। कई किसान बाहरी नस्लों के साथ क्रॉसब्रीडिंग करने लगे हैं, जिससे परंपरागत नस्लों का अस्तित्व खतरे में है। भारी बारिश, भूस्खलन और बाढ़ जैसी घटनाओं से चारागाह बह जाते हैं और बाजार तक पहुंचने में मुश्किल आती है।
इस पूरे संकट का बोझ महिलाओं पर ज्यादा बढ़ा है, क्योंकि पानी और चारा लाने की जिम्मेदारी उन्हीं पर होती है। अब उन्हें दोगुना समय लगाना पड़ रहा है। कई परिवार पशुओं की संख्या घटाकर बकरी और मुर्गी पालन की ओर रुख कर रहे हैं।
शोध में यह भी सामने आया कि जंगल घटने और भोजन की कमी से भालू, तेंदुआ और जंगली सूअर गांवों की ओर बढ़ रहे हैं। 68 प्रतिशत ग्रामीणों ने बताया कि उनके पशु जंगली जानवरों का शिकार बन चुके हैं। इससे पशुपालकों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है।
